जब राजनीति ने भय और आतंक का माहौल पैदा कर दिया है तब यह ज़रूरी है कि यह अहिंसक विचार पूरी ताकत के साथ अपनी भूमिका निभाए
इस समय देश में जो हो रहा है उसे गांधी-विचार से जुड़े लोग कैसे देखते-समझते हैं इसका ठीक से अनुमान लगाना कठिन है. एक कारण शायद यह है कि देश में राजनीति की बढ़ती सर्वग्रासिता से वे ज़्यादातर अछूते रहे हैं. उनका रचनात्मक काम करने का क्षेत्र राजनीति नहीं है बल्कि उससे काफ़ी दूर है. दुर्भाग्य से अब हमारा समय ऐसा नहीं है कि राजनीति को छुट्टा छोड़ दिया जाये क्योंकि राजनीति किसी भी क्षेत्र को अपने प्रभाव में लेने से मुक्त नहीं छोड़ रही है. इसलिए महात्मा गांधी के डेढ़ सौवें वर्ष में गांधी-विचार को फिर राजनैतिक रूप से सक्रिय होने की दरकार है. इसलिए भी कि हमारी राजनीति गांधी से जितनी दूर जाना संभव है उतनी दूर जा चुकी है. गांधी-विचार इस समूची राजनीति का प्रतिबिंदु, प्रतिरोध है.
गांधी-विचार से जुड़े लोग विनयी और संकोची होते हैं. बढ़-चढ़कर बोलना, औरों को आक्रांत करना, दूसरों की अवज्ञा करना आदि उनके स्वभाव और व्यवहार में नहीं होता जबकि सक्रिय राजनीति में इन्हीं का बोलबाला है. आज राजनीति हिंसा को उकसाने, उसे हवा देने और उसका पूरी बेशरमी और नीचता से लाभ उठाने से नहीं चूकती. गांधी-विचार, दूसरी तरफ़, अहिंसक होता है. उसमें सविनय अवज्ञा भरी हुई है. गांधी-150 में इस विचार को कुछ अधिक मुखर, अहिंसक होते हुए उग्र और संकोचहीन होने की ज़रूरत है. वह अपनी बुनियादी नैतिकता को, जो सद्भाव और संवाद पर आधारित है, क़तई न तजे पर आज के हालात के अनुरूप उसका सकर्मक पुनराविष्कार करे यह ज़रूरी है. जब राजनीति ने भय और आतंक का माहौल पैदा कर दिया है और उन्हें हर हिक़मत का इस्तेमाल कर बढ़ावा दे रही है, तब यह ज़रूरी है कि यह अहिंसक विचार-उग्रता निर्भय और स्पष्ट हो और दूसरों को भी निर्भय प्रतिरोध के लिए उत्साहित-प्रेरित करे.
दो बातें नोट करने की हैं. हिंदुत्व नाम से जो धार्मिक विद्रूप फैलाया जा रहा है, वह मुख्यतः हिंसक, दूसरों से घृणा, निस्संकोच हिंसा-हत्या का सहारा लेनेवाला अभियान है. उसके बरक़्स गांधी के सर्वधर्मसमभाव पर इसरार करने की ज़रूरत है. सामंजस्य समझ पर आधारित होना चाहिये न कि डर पर. हिंदुत्व का मुखर विरोध करने और उसके धार्मिक छद्म का पर्दाफाश करने में न सिर्फ़ हिंदू धर्म के अनेक गुरु पीछे हैं, गांधी-कार्यकर्ताओं की आवाज़ भी कम सुनायी देती है. भारतीय नागरिकता को यह समझने-समझाने की ज़रूरत है कि हिंदू धर्म इस्लाम और ईसाई धर्मों को हाशिये पर डालकर, उन्हें दोयम दर्ज़ा देकर नहीं बचेगा. वह बचेगा उनके साथ-संग से जैसे कि सदियों से बचता आया है.
दूसरी बात यह है कि स्वतंत्रता-संग्राम और इतिहास की लगभग दैनिक दुर्व्याख्या हो रही है और गांधीवादी चुप हैं. गांधी ने भारतीय परंपरा का पुनराविष्कार किया था और उसकी बहुलता को जाना-माना था. इस गांधी-समझ का दबाव दृश्य पर अगर गांधी-विचार से जुड़े लोग नहीं करेंगे तो और कौन करेगा? दलितों-स्त्रियों-अल्पसंख्यकों पर बढ़ते अत्याचारों का मुखर विरोध गांधी-विचार के लोगों को करना ही चाहिये अन्यथा गांधी उनके लिए शक्ति नहीं अनुष्ठान बनकर रह जायेंगे.
गंदगी की चमक
स्वच्छता अभियान के समय में यह विडंबना हम लक्ष्य करने से बच नहीं सकते कि इस दौरान राजनीति, धर्म, बाज़ार, मीडिया, सार्वजनिक जीवन आदि सभी में गंदगी बेहद तेज़ी से फैल गयी है. वह चमकीली, आकर्षक, मनलुभावन, माथापलटावन सब कुछ हो गयी है. गंदगी को देखकर नाक-भौं सिकोड़नेवाले घट रहे हैं और उसे सुगंध मानकर सूंघनेवाले तेज़ी से बढ़ रहे हैं. उसमें आज जितनी चमक और आकर्षण है उतना पहले शायद ही कभी रहा हो. हम उससे हर वक़्त इस क़दर घिर गये हैं कि हमने उसे अलग से देखना पहचानना ही बंद कर दिया है. ठीक वैसे ही जैसे एक गुंडे और एक राजनेता अब इतने सारे मामलों में पूरी तरह एकीकृत हो चुके हैं कि गुंडे राजनेता लगते हैं और कई बार राजनेताओं को गुंडों की तरह देखने से हम नहीं चूकते हैं. हिंसा की गोंद उन्हें एक दूसरे से पूरी तरह चिपका रही है.
यह गंदगी कोई स्वाभाविक प्रक्रिया से नहीं फैल रही है. उसे फैलाने वाले लोग ओर संस्थाएं हैं. उनका स्वच्छ लक्ष्य गंदगी फैलाना है- सड़कों से हटाकर दिमाग़ों में भर देना है. वे स्वनियुक्त अधिकरण हैं जिन्हें राज्य और सत्ता का मूक और निष्क्रिय समर्थन प्राप्त है. वे सार्वजनिक संवाद से लेकर तथाकथित अध्यात्म तक, विचार से लेकर सार्वजनिक व्यवहार तक सब जगह पूरी बेशर्मी ओर निडरता के साथ गंदगी फैला रहे हैं.
इस गंदगी के कई परिणाम हैं. विचार की जगह और ज़रूरत तेज़ी से कम हो रही है. एक ऐसी मूलतः गंदी नागरिकता विकसित हो रही है जिसमें गंदगी के लिए दूसरे ज़िम्मेदार ठहराये और दंडित किये जा रहे हैं- ये ‘दूसरे’ कभी जातिगत, कभी धार्मिक, कभी वैचारिक दूसरे हैं. इसके चलते हर तरह की अल्पसंख्यकता व्यापक गन्दगी के लिए ज़िम्मेदार और कुसूरवार हैं. बैंकों के दरवाज़ों से लेकर गंगा-यमुना के किनारों-कछारों तक, संपादकों की मेज़ों से लेकर अभयारण्यों तक यह गंदगी छायी हुई है. कई बार ऐसा भ्रम होता है जैसे यह आकाश या पवन की तरह स्वयंभू है जबकि हम सभी जानते हैं कि यह मनुष्य द्वारा पैदा की जा रही है.
हम इस गंदगी से पाक-साफ़ निकलकर किसी स्वच्छ शरण्य में आश्रय नहीं खोज सकते. यह काजर की कोठरी है जिसमें से कोई भी सयाना बिना कालिख लगे निकल नहीं सकता. जैसे बरसों पहले लिखी गयी शेखर जोशी की कहानी ‘बदबू’ में उसके चरितनायक के लिए निरंतर बदबू से घिरा होने के कारण बदबू महसूस होना बंद हो जाती है वैसे ही अब हमें गंदगी से इतना अभ्यस्त हो जाना पड़ा है कि अब हमें गंदगी नज़र नहीं आती, महसूस नहीं होती. हमारी सहज मानवीय ऐन्द्रियता अब घटने लगी है.
यह आकस्मिक नहीं है कि हममें से अधिकांश इस गंदगी को गंदगी कहने-मानने को तैयार नहीं हैं. ‘ऐसा तो होता आया है’ का तर्क हम गंदगी के औचित्य के लिए इस्तेमाल करने लगे हैं. एक गंदगी-भरा अभूतपूर्व समय हम सबको गंदा बना रहा है और हमें इसकी ख़बर और परवाह नहीं है!
लिखने का अर्थ
ऐसे लोगों की कमी नहीं जो मानते और ऐसी सलाह देते रहते हैं कि लिखने से कुछ नहीं होता, कुछ करना चाहिये. बिना कुछ किये, सिर्फ़ लिखने से चीज़ें बदल नहीं सकतीं. दूसरी तरफ़ लेखक हैं जो इस पर इसरार करते रहते हैं कि लिखना करने का ही एक प्रकार है. लिखने से कुछ न कुछ ज़रूर बदलता है. निज़ाम न बदले, उसे बदल सकने की संभावना और इच्छा उपजती है. लिखना भाषा में कुछ करना होता है और चूंकि भाषा एक सामाजिक वस्तु है, उसमें कुछ करना समाज में भी कुछ करना होता है. लिखना ठीक-ठीक या पूरमपूर करना नहीं है पर दोनों में काफ़ी निकटता होती है. बहुत सारा करना लिखने से प्रेरित या उत्साहित-उत्तेजित होता है.
कठिन और आक्रामक समयों में कई बार लेखक इस दुविधा में फंस जाता है कि सिर्फ़ लिखने से उन्हें निठल्ला या निरर्थक और अप्रासंगिक मान लिया जाएगा, उन्हें कुछ करना चाहिये. ऐसे समयों में अकसर भाषा के साथ कई अनाचार होते हैं. उसकी मानवीयता और अभिव्यक्ति की शक्ति को बिलकुल नीचे के पायदान पर ढकेल दिया जाता है और उसका दुरुपयोग किया जाने लगता है. हमारा समय इसका एक दुखद उदाहरण है. राजनीति, बाज़ार, धर्म, मीडिया आदि क्षेत्रों में भाषा अपने निम्नतम स्तर पर घटायी जा रही है. उससे अकारण हिंसा, अकस्मात् हत्या,व्यापक घृणा, गाली-गलौज़, विचारहीनता, स्मृतिलोप, दुर्व्याख्या आदि का निर्लज्ज दुरुपयोग किया जा रहा है. ऐसे अभागे समय में लिखना, निर्भीकता-ईमानदारी-अंतःकरण से लिखना अपनी भाषा और उसकी बुनियादी मानवीयता को बचाना है. उसका फ़ौरन कोई नतीजा न भी निकले, उसका दीर्घकाल में मूल्य है. भाषा को उसकी मानवीयता और विविधता में, जीवंतता और संवादपरकता में बचाने की कोशिश एक सामाजिक काम है.
अधिकांश लेखक सिर्फ़ लिखते ही नहीं हैं. वे जीवन में नागरिक की तरह और कुछ भी बहुत करते हैं. बड़े और अच्छे लेखकों में यह कुछ और करना उनके लिखने का ही विस्तार होता है. जब-तब लेखक सामूहिक रूप से एकत्र होकर किसी दुष्प्रवृत्ति का प्रतिरोध भी करते हैं जो कि उनके नागरिक दायित्व का एक रूप होता है. कई बार इस सामूहिक कार्रवाई का प्रभाव लिखने से कहीं अधिक होता है। पर वह लिखने का स्थापन्न, कुछ देर के लिए ही सही, नहीं होना चाहिये. किसी भी कारण या प्रलोभन से लिखने से विरत या विकर्षित लेखक फिर लेखक नहीं रह जाता.
लिखना, सोचना, करना, सपने देखना, जिज्ञासा करना, विकल्प खोजना, कल्पना करना आदि सभी मनुष्य के लिए स्वाभाविक क्रियाएं हैं. ये एक-दूसरे से बिलकुल अलग-थलग भी नहीं होती. इनका समुच्य ही दरअसल सच्चा मानवीय कर्म होता है. इसमें से हरेक को अपने आप में पूर्ण भी माना जा सकता है और इनमें से हरेक दूसरे से जुड़कर एक दूसरे क़िस्म की सघन-समृद्ध पूर्णता प्राप्त करती है जो अकेले रहकर उसे न मिलती. लिखना हमें इस पारस्परिकता की याद भी दिलाता है, किसी और क्रिया से कहीं अधिक.
साभार : सत्याग्रह.कॉम/अंजली मिश्रा