पवन भोजक
खोदा पहाड़ और निकली चुहिया वाली कहावत नोटबंदी पर पूर्णत: जच रही है। दो साल पूर्व नवम्बर माह में ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के यकायक 500 व 1000 के नोटों को बंद कर दिए जाने के फैसले से भारत ही नहीं अन्य देश भी स्तब्ध रह गए।
इतने बड़े निर्णय के बारे में स्वयं सरकार तक जानती थी कि अर्थव्यवस्था बिगड़ सकती है और जाहिर सी बात है नोटबंदी के दंश कई समय तक लगते रहे। सरकार का मानना था कि नोटबंदी से काला धन और नोटों की जमाखोरी पर लगाम कसी जाएगी। जबकि आर्थिक विशेषज्ञों का अब बड़ा सवाल यही है कि इतना बड़ा निर्णय लेने के बाद भी क्या हासिल हुआ।
नोटबंदी के बाद जारी हुए 2000 के नोटों की संख्या मार्च 2017 तक 328.5 करोड़ थी। इनका मूल्य 6 लाख 57 हजार करोड़ रुपए होता। देखा जाए तो यह आंकड़ा नोटबंदी के दौरान सर्कुलेशन में मौजूद 1000 रुपए के नोटों के मूल्य 6.32 लाख करोड़ रुपए से कहीं ज्यादा है। सरकार कहती है कि बड़े नोटों से कालाधन बढ़ता है। फिर पुराने हजार के नोटों से ज्यादा कीमत के दो हजार के नोट जारी करने से कालाधन कम कैसे हो गया।
इसके अलावा नोटबंदी के वक्त कुल करंसी में 500 और 1000 रुपए के नोटों की हिस्सेदारी 86 फीसदी थी, नोटबंदी के अगले साल यानी दिसंबर 2017 में 500 और 2000 के नोटों की हिस्सेदारी 90 फीसदी से ऊपर चली गई। यहां सवाल उठता है कि आखिर बड़े नोट पहले से ज्यादा ही जारी करने थे तो फिर नोटबंदी का मकसद क्या था? क्या 2000 के नोट से कालेधन को बढ़ावा नहीं मिला? अप्रैल-18 में फिर से कैश की किल्लत सामने आई। इसके बाद सरकार ने 2000 के नोटों का सर्कुलेशन घटाना शुरू किया।
कई आर्थिक और बैंकिंग विशेषज्ञों के मुताबिक 2000 के नोटों के जरिए ब्लैकमनी जमा करना ज्यादा आसान है। यह 500-1000 के नोटों की तुलना में संख्या में कम और कीमत में ज्यादा बैठते हैं।











