राजस्थान प्रदेश भाजपा को लगभग ढाई महीने बाद मिले अध्यक्ष मदनलाल सैनी को फर्स्ट या के न्यू जेसी शो से वे भी ठीकठाक समझ सकते हैं, जो सैनी को खास जानते-समझते ना हों।
प्रादेशिक भाजपाई राजनीति के संदर्भों से बात करें तो पूर्व अध्यक्ष अशोक परनामी और सैनी में अंतर यही है कि चतुर परनामी की लगाम की दोनों डोरियां सूबे की भाजपाई सुप्रीमो वसुंधरा राजे के हाथ थीं तो वर्तमान अध्यक्ष मदनलाल सैनी की लगाम की एक डोरी वसुंधरा के हाथ तो दूसरी संगठन महासचिव चंद्रशेखर मिश्र के माध्यम से अमित शाह के हाथ रहेगी। ऐसे में पार्टी को सरपट दौड़ाये रखने का दारमदार सैनी से ज्यादा उन पे रहेगा, जिनके हाथों में उनकी लगाम है। उक्त उल्लेखित साक्षात्कार सुनने के बाद इतना कह सकते हैं कि सैनी में वह कूवत तो है जिसमें लगाम की दोनों डोरियों के खिंचाव और छूट को समझ-बूझकर संतुलन रख सकें।
उक्त बातचीत को सुन-समझ कर लगता है कि फस्र्ट इंडिया टीवी के जगदीशचंद्र भी सैनी के मिजाज को पहले से भांप गए थे, शायद इसीलिए ‘जेसी’ बात उगलवाने के अपने चिरपरिचित अंदाज से उलट यहां लो-प्रोफाइल रहे।
1943 में जन्मे मदनलाल सैनी 1952 में 9 वर्ष की उम्र से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए और तब से इसी के होकर रह गए। आजीविका के लिए 1970 से 75 तक वकालत भी आजमाई लेकिन लौटकर ‘संघम् शरणम्’ आ लिए और भारतीय मजदूर संघ और बाद में किसान मोर्चा को संभालने लगे।
संघ ही क्यों, सभी जगह कुछ भले लोग भी होते हैं। उक्त बातचीत से सहज और निर्मल मन के लगे सैनी ने कभी अपनी महत्त्वाकांक्षाएं जाहिर नहीं होने दी, शायद इसीलिए लम्बे समय तक वे संघ के अनुषंगी संगठनों में ही सेवाएं देते रहे। युग की जैसी सचाई है, दूध के धुले होने के दावे करते संगठनों को भी सत्ता में अपनी पुख्ता हिस्सेदारी चाहिए होती है, ऐसे में संघ से तो दूसरे तरीके की उम्मीदें की ही नहीं जा सकती। सैनी की संघनिष्ठा और कर्मठता दोनों ने आखिर काम किया, देर से ही सही–1990 के राजस्थान विधानसभा चुनावों में भाजपा के माध्यम से सैनी व्यावहारिक राजनीति में आ लिए और उदयपुरवाटी से विधायक चुन लिए गए। बाद उसके 1991 और 1998 में जाट प्रभावी झुंझुनूं लोकसभा सीट से भी भाजपा द्वारा आजमाए गए, लेकिन दोनों बार सैनी वहां से हार गए।
राजनीति में कोई गॉडफादर होने से इनकार करने वाले सैनी सफा नुगरे भी नहीं हैं, उन्होंने स्वीकारा भी कि उन्हें ठीक करने और बनाने में बहुतों का योगदान है, प्रदेश के वरिष्ठों में वे हरिशंकर भाभड़ा और भैरोंसिंह शेखावत का उल्लेख सम्मान से करते हैं। ओम माथुर को तो वे आत्मविश्वास से साथी बताने में भी संकोच नहीं करते। अपने साक्षात्कार में सैनी ने वसुंधरा राजे का उल्लेख जब भी किया उससे लगा, सैनी को मिली इस नई जिम्मेदारी में राजे का योगदान भी कम नहीं है। शेष तो संघ और पार्टी के लिए निष्ठा से उनके द्वारा किया काम ही काम आया।
विचारधारा के मामले में सैनी भी अन्य संघनिष्ठों से कम आत्ममुग्ध नहीं हैं। पार्टी के दोनों दिग्गजों—नरेंद्र मोदी और अमित शाह की बिरुदावली गाने की चतुराई से भी वे नहीं चूकते।
सर पर आई चुनावी चुनौतियों का उन्हें अच्छे से भान है, चुनाव संबंधी प्रश्नों के जवाब उन्होंने ना केवल सावचेती से दिए बल्कि दिए उत्तरों से लगा कि उन्हें इस बात का अहसास है कि चुनावी डगर आसान नहीं।
कांग्रेस के हवाले से भ्रष्टाचार की बात करते हुए सैनी ने यह जता भी दिया कि यह ऐसी बुराई है जिसके साथ चलना अब सबकी मजबूरी हो गया है। उनका मानना है कि भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने में कांग्रेस ने तो कभी रुचि भी नहीं दिखाई, भाजपा उस पर अंकुश (समाप्त नहीं) लगाने की बात तो करती है।
कांग्रेस और भाजपा में सांगठनिक अंतर दरसाते हुए संघ के 42 अनुषंगी संगठनों के सहयोग की ताकत और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की अच्छी प्लानिंग व मॉनीटरिंग के हवाले से सैनी अपने को आश्वस्त करने की भी कोशिश करते हैं। लेकिन प्रश्न फिर वही आ खड़ा होता है कि उल्लेखित सांगठनिक ताकत व शाह की काबिलीयत के बावजूद भाजपा के लिए इस बार राजस्थान में कुछ भी आश्वस्ति कारक नहीं दीखता।
भाजपा और कांग्रेस में अन्तर का जिक्र करते हुए सैनी बताते हैं कि भाजपा के पास संघ के अनुषंगी संगठनों के निष्ठावान कार्यकर्ताओं की ताकत है उसकी बराबरी कांग्रेस किसी मानी में नहीं कर सकती। ऐसे में कांग्रेस को इस पर विचार करना चाहिए कि उसके पास सांगठनिक ताकतों की नदारदगी और अमित शाह की चतुराई पूर्ण कार्यशैली के अभाव के बावजूद राजस्थान में एन्टी-इनकम्बेंसी की जो अनुकूलताएं फिलहाल बनी हैं, उसमें खुद कांग्रेस का अपना पुरुषार्थ क्या और कितान’क है? भाजपा से लम्बे समय तक मोर्चा लेने के लिए विचारों से उस जैसा होने से ज्यादा जरूरी व्यापक सांगठनिक ढांचेे का होना और शाह जैसी कर्मठता से पार्टी को हांके रखना ज्यादा जरूरी है, जिसकी फिलहाल कोई संभावना कांग्रेस मेंं दीख नहीं रही है।
लब्बोलुआब यह कि जैसा लग रहा है—आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर रंग-ढंग भाजपाई शिखर में ढलान के लग रहे हैं, ऐसे में ढाई महीनों की बड़ों की इस लड़ाई के बाद अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठ भले दीखने वाले सैनी कहीं चिगदीज नहीं जाएं।
–दीपचन्द सांखला, 5 जुलाई, 2018
साभार : विनायक, साप्ताहिक