ग़ालिब का ये शेर क्या यूँ ही है या कुछ ग़फ़लत है? उनके जीते जी जो दीवान छपा उसमें यह शब्द ‘होने’ तक नहीं बल्कि ‘होते’ तक है।
नन्दकिशोर आचार्य द्वारा संयोजित और वाग्देवी से प्रकाशित दीवाने ग़ालिब में पृष्ठ संख्या 88 पर ‘होते’ तक है।
अली सरदार जाफरी द्वारा संयोजित राजकमल से दीवान ए ग़ालिब में पृष्ठ 70 पर ‘होने’ तक छपा है।
वाणी प्रकाशन से प्रकाशित दीवान ए ग़ालिब की भूमिका में जनाब शीन काफ निज़ाम ने भी इसे उल्लेखित किया है किस तरह ‘होते तक’ को ‘होने तक’ मे तब्दील कर दिया आने वाले वक्त में। मिर्ज़ा के मूल दीवान में ‘होते तक’ ही है।
बाकी नाटक, फ़िल्म बनाने वालों गाने वालों के बारे में क्या कहें जिनके लिए ‘होने तक’ ही है। क्या जब किसी के जीवन, रचनाकर्म पर कोई चलचित्र बने तो उसमें शोध, प्रामाणिकता की ओर ध्यान देना जरूरी नहीं? जो उनका नही वह शामिल कर लिया जाता है, शब्द बदल दिए जाते हैं।
विमर्श : अनिरुद्ध उमट, कवि-कथाकार
रेखाचित्र : रामकिशन अडिग, मूर्तिकार-चित्रकार











